कच्चातिवु द्वीप: इतिहास, विवाद और वर्तमान स्थिति
कच्चातिवु द्वीप, जो श्रीलंका और भारत के बीच स्थित है, लंबे समय से दोनों देशों के बीच विवाद का कारण रहा है। यह द्वीप 285 एकड़ क्षेत्रफल में फैला है और पलक खाड़ी में स्थित है। ऐतिहासिक रूप से, यह द्वीप रामनाथपुरम (तमिलनाडु) के राजा के अधीन था, लेकिन 1974 में भारत ने इसे श्रीलंका को सौंप दिया।
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कच्चातिवु द्वीप का इतिहास
- ब्रिटिश शासन: ब्रिटिश काल में यह रामनाथपुरम के राजा के अधीन था।
- 1974 समझौता: इंदिरा गांधी सरकार ने “इंडो-श्रीलंकन मैरीटाइम एग्रीमेंट” के तहत इसे श्रीलंका को सौंपा। इस समझौते में भारतीय मछुआरों को द्वीप पर आराम करने, जाल सुखाने और कैथोलिक चर्च की यात्रा की अनुमति दी गई थी।
- 1976 समझौता: दोनों देशों के मछुआरों को एक-दूसरे के विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ) में मछली पकड़ने से प्रतिबंधित कर दिया गया, जिससे विवाद बढ़ा।
वर्तमान विवाद और महत्व
- तमिलनाडु के मछुआरों का मुद्दा:
कच्चातिवु द्वीप तमिलनाडु के मछुआरों के लिए पारंपरिक मछली पकड़ने का स्थान रहा है। श्रीलंका द्वारा मछुआरों की गिरफ्तारी और उनकी नौकाओं को नष्ट करने से तनाव बढ़ा है। - राजनीतिक दबाव:
तमिलनाडु की राजनीतिक पार्टियां, जैसे DMK और AIADMK, कच्चातिवु को भारत में पुनः शामिल करने की मांग कर रही हैं। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस पर ठोस कदम उठाने की अपील की है। - भारत-श्रीलंका संबंध:
श्रीलंका इसे अपनी संप्रभुता का हिस्सा मानता है और भारतीय मछुआरों द्वारा सीमा उल्लंघन को अवैध मानता है।
महत्वपूर्ण तथ्य
- धार्मिक महत्व: द्वीप पर स्थित सेंट एंथनी चर्च हर साल भारत और श्रीलंका दोनों देशों के तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है।
- सामरिक महत्व: यह पलक खाड़ी में स्थित है, जो भारत और श्रीलंका के बीच समुद्री सीमा का निर्धारण करता है।
- आर्थिक प्रभाव: मछली पकड़ने के अधिकारों पर विवाद ने तमिलनाडु के मछुआरों की आजीविका को प्रभावित किया है।
FAQs
1. कच्चातिवु द्वीप किसके अधीन है?
कच्चातिवु द्वीप 1974 के समझौते के तहत श्रीलंका को सौंप दिया गया था, लेकिन भारतीय मछुआरों को सीमित अधिकार दिए गए थे।
2. कच्चातिवु विवाद क्यों महत्वपूर्ण है?
यह विवाद तमिलनाडु के मछुआरों की आजीविका, भारत-श्रीलंका संबंधों और समुद्री सीमा विवाद से जुड़ा हुआ है।
3. क्या कच्चातिवु को भारत वापस ले सकता है?
कानूनी रूप से, 1974 और 1976 के समझौतों को चुनौती देना मुश्किल है। इसे वापस लेने के लिए संवैधानिक संशोधन या अंतरराष्ट्रीय सहमति आवश्यक होगी।